झूठ ही झूठ की आज अंबार लगा दूँ,
शब्दजाल से राई को पहाड़ बना दूँ,
बेमतलब की बातों से उलझाता चलूंगा,
किसी और के कंधे बंदूक चलाता चलूंगा,
दो बातें ऐसी करूँ जिसका खुद में कोई मेल ना हो,
स्वयं ज्ञानी लाख करे तर्क वितर्क और कुतर्क,
कोई बच ना पायेगा जिसके मन मे अब कोई मैल ना हो,
कि जुबां की नियत कोई समझता क्यों नहीं,
बदनीयती पर कोई उलझता क्यों नही,
क्या हाल बना रखी है इस शहर का ऐ मालिक,
नियत की जुबां कोई समझता क्यों नही है
कि किसी के बुरे कर्म क्या अच्छे है
के कोई उससे भी बुरा है,
बुराई झेल जाना भी,
बुराई से बुरा है,
बुराई का सर उठता है,
के अच्छाई झुकी है,
बुराई मिट ही जाता है
जब भी सच्चाई उठी है।।।
Param
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